महाकालीले हर संकट हटाउनेछ, कालरात्रि चालिसा पढ्नुहोस् | ईमाउण्टेन समाचार

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असार १४ २०८१, बिहीबार

महाकालीले हर संकट हटाउनेछ, कालरात्रि चालिसा पढ्नुहोस्

काठमाडौं,३ कात्तिक । शारदीय नवरात्रीको पवित्र समय चलिरहेको छ । यस अवधिमा देवी दुर्गाका नौ रुपको पूजा गर्ने चलन छ । नवरात्रीको सातौं दिन माता दुर्गाको कालरात्रि स्वरूपलाई समर्पित गरिन्छ ।

माँ कालरात्रिको रूप अति विचित्र छ तर माताको हृदय निकै कोमल छ । यस दिन विधि अनुसार माताको पूजा गरेमा माताले साधकका सबै शत्रुहरूलाई शान्त गराउनुहुन्छ।

धार्मिक मान्यता अनुसार आमा शत्रु हुन् । यसै कारणले उनलाई कालरात्रि भनिन्छ । यस्तो अवस्थामा देवी मातालाई छिट्टै प्रसन्न पार्न चाहनुहुन्छ भने महाकाली चालिसाको पाठ गर्नुहोस् । त्यसैले यहाँ महाकाली चालिसा पढौं–

॥॥दोहा ॥॥

जयकाली कलिमलहरण, महिमा अगम अपार

महिष मर्दिनी कालिका, देहु अभय अपार ॥

अरि मद मान मिटावन हारी । मुण्डमाल गल सोहत प्यारी ॥

अष्टभुजी सुखदायक माता । दुष्टदलन जग में विख्याता ॥॥

भाल विशाल मुकुट छवि छाजै । कर में शीश शत्रु का साजै ॥

दूजे हाथ लिए मधु प्याला । हाथ तीसरे सोहत भाला ॥॥

चौथे खप्पर खड्ग कर पांचे । छठे त्रिशूल शत्रु बल जांचे ॥

सप्तम करदमकत असि प्यारी । शोभा अद्भुत मात तुम्हारी ॥॥

अष्टम कर भक्तन वर दाता । जग मनहरण रूप ये माता ॥

भक्तन में अनुरक्त भवानी । निशदिन रटें ॠषी(मुनि ज्ञानी ॥॥

महशक्ति अति प्रबल पुनीता । तू ही काली तू ही सीता ॥

पतित तारिणी हे जग पालक । कल्याणी पापी कुल घालक ॥॥

शेष सुरेश न पावत पारा । गौरी रूप धर्यो इक बारा ॥

तुम समान दाता नहिं दूजा । विधिवत करें भक्तजन पूजा ॥॥

रूप भयंकर जब तुम धारा । दुष्टदलन कीन्हेहु संहारा ॥

नाम अनेकन मात तुम्हारे । भक्तजनों के संकट टारे ॥॥

कलि के कष्ट कलेशन हरनी । भव भय मोचन मंगल करनी ॥

महिमा अगम वेद यश गावैं । नारद शारद पार न पावैं ॥॥

भू पर भार बढ्यौ जब भारी । तब तब तुम प्रकटीं महतारी ॥

आदि अनादि अभय वरदाता । विश्वविदित भव संकट त्राता ॥॥

कुसमय नाम तुम्हारौ लीन्हा । उसको सदा अभय वर दीन्हा ॥कलुआ भैंरों संग तुम्हारे । अरि हित रूप भयानक धारे ॥

सेवक लांगुर रहत अगारी । चौसठ जोगन आज्ञाकारी ॥॥

त्रेता में रघुवर हित आई । दशकंधर की सैन नसाई ॥

खेला रण का खेल निराला । भरा मांस(मज्जा से प्याला ॥॥

रौद्र रूप लखि दानव भागे । कियौ गवन भवन निज त्यागे ॥

तब ऐसौ तामस चढ़ आयो । स्वजन विजन को भेद भुलायो ॥॥

ये बालक लखि शंकर आए । राह रोक चरनन में धाए ॥

तब मुख जीभ निकर जो आई । यही रूप प्रचलित है माई ॥।

बाढ्यो महिषासुर मद भारी । पीड़ित किए सकल नर(नारी ॥

करूण पुकार सुनी भक्तन की । पीर मिटावन हित जन(जन की ॥॥

तब प्रगटी निज सैन समेता । नाम पड़ा मां महिष विजेता ॥

शुंभ निशुंभ हने छन माहीं । तुम सम जग दूसर कोउ नाहीं ॥॥

मान मथनहारी खल दल के । सदा सहायक भक्त विकल के ॥

दीन विहीन करैं नित सेवा । पावैं मनवांछित फल मेवा ॥॥

संकट में जो सुमिरन करहीं । उनके कष्ट मातु तुम हरहीं ॥

प्रेम सहित जो कीरति गावैं । भव बन्धन सों मुक्ती पावैं ॥॥

काली चालीसा जो पढ़हीं । स्वर्गलोक बिनु बंधन चढ़हीं ॥

दया दृष्टि हेरौ जगदम्बा । केहि कारण मां कियौ विलम्बा ॥॥

करहु मातु भक्तन रखवाली । जयति जयति काली कंकाली ॥

सेवक दीन अनाथ अनारी । भक्तिभाव युति शरण तुम्हारी ॥॥

॥॥दोहा॥॥

प्रेम सहित जो करे, काली चालीसा पाठ ।

तिनकी पूरन कामना, होय सकल जग ठाठ ॥

ध्यान धरें श्रुति शेष सुरेशा । काल रूप लखि तुमरो भेषा ॥॥

कालरात्रि मंत्र (

ज्वाला कराल अति उग्रम शेषा सुर सूदनम।

त्रिशूलम पातु नो भीते भद्रकाली नमोस्तुते।।

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